Monday 29 April 2019

गुरूजी रवीन्द्र शर्मा - एक स्मृति



आज-कल साल बीतते साल कहाँ लगता है. हर साल, 'साल की उम्र' कम होती जा रही है. शायद इसी अनुभव को कुछ इतिहासकारों ने 'इतिहास के त्वरण' (acceleration of history) के नाम से पहचाना है. तकनीकी प्रक्रियाओं की रफ़्तार अब इतनी तीव्र हो चली है कि यह गतिशीलता स्वाभाविक है. यह तीव्रता जायज़ है अथ्वा नहीं इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि एक साल का अन्तराल पृथ्वी के सूर्य-देव की परिक्रमा से निर्धारित है. इसको मानव-जाति अपनी इच्छानुसार छोटा-बड़ा, तेज़-धीमा अगर करे तो शायद केवल मात्र अपनी कल्पना में ही. जब इतिहास करवट बदलेगा तो समय जायज़ा लेगा. उस घड़ी में शायद अब ज़्यादा देर नहीं. 

ऐसी गुरूजी रवींद्र शर्मा की दृष्टि थी. लगता ही नहीं कि गुरूजी को गए ठीक एक साल गुज़र चूका है. आज ही का दिन था. हम माँ-पिताजी के संग बैंगकॉक हवाई अड्डे पर थे. (म्याँमार से लौट रहे थे. माँ की मनोकामना थी अपना जन्म-स्थान, रंगून देखने का.) हमारे मित्र विवेक का मेल था हैदराबाद से: "गुरूजी नहीं रहे." बुद्ध-पूर्णिमा के दिन वे महादेवी में समा गए. 

कोई ३ वर्षों से कैंसर-ग्रस्त तो थे ही. मेरी उनसे आखिरी मुलाक़ात उनकी बेटी दिव्या की शादी में उनके गुज़रने के कोई ८ महीने पहले हुई थी. बहुत कमज़ोर हो गए थे. बोलने में तकलीफ़ थी. कैंसर ने गाला पकड़ लिया था. गुरूजी हमे दिल्ली में हर महीने २-३ बार तो फ़ोन किया ही करते थे. बातें हमारी लम्बी होती थीं. लेकिन हाल-हाल में ये कम हो गया था, और ज़्यादा देर बात भी नहीं कर पाते थे. 

मेरी आदत बन चुकी थी कि गुरुजी से हर बार बात करने के बाद, अपनी मेज़ पर बैठ के सारी बातें याद कर के अपनी कॉपी में लिख लेते थे. ऐसी कई कॉपियाँ मेरे पास पड़ी हुई हैं. उन में से कुछ गुरूजी के चुनिंदे वाक यहाँ याद में पुनर्जीवित कर रहे हैं. साथ ही साथ कुछ उनसे जुड़े विचार भी प्रस्तुत हैं. ये रवीन्द्र शर्मा नाम के महासागर की मात्र एक तिर्छी झलक है. 

गुरूजी भारत के मौखिक-कथावाचक परम्परा के एक अनोखे मिसाल हैं. जाति-पुराण और लोक-संस्कृति में पारंगत, गुरूजी आध्यात्मिक ज़रूर थे, लेकिन अपने पाण्डित्व को दुनिया के बौद्ध-बाज़ारों में प्रदर्शित करना उनके स्वभाव के बाहर था. रोज़ सुबह कलाश्रम के चबूतरे में रामायण अथ्वा महाभारत पढ़ा करते. सेमीनार और सम्मेलनों से भला उनका क्या लेना-देना? उनको 'बुद्धिजीवी' की श्रेणी में डालना अपनी ही नासमझी व्यक्त करना होगा. उनके साथ रह कर किसी को भी बुद्धिजीवी और दृष्टा का अन्तर समझ में आ सकता था. उनकी हर चीज़ की समझ उनकी महसूसियत में बसी हुई थी. उनका दिल उनकी आँख का काम भी करता था. सिर्फ अपनी समझ को पेश करने के लिए वो विचार और शब्दों का प्रयोग करते थे. वरना अपनी शरारती मुस्कान या फिर एक इशारे या अपनी आवाज़ की लय और उतार-चढ़ाव से ही अपनी बात कह डालते थे. आचरण और उच्चारण का समन्वय बारीक था गुरूजी की सरल ज़िन्दग़ी में। उनका व्यक्तित्व साधारण लोक-संस्कृति से प्रेरित था. भाषा सदा सरल थी. अहंकार जैसी चीज़ नहीं. और इन ही सारी चीज़ों में उनकी सहजता का रहस्य था.     

तेलंगाना के आदिलाबाद में रहने वाले, गुरूजी उम्र भर अपने कलाश्रम में विराजमान रहे. न जाने कितनी लोक-कलाओं की वहाँ उनहोंने साधना की. सारे देश के न जाने कितने कारीगरों को उनके आश्रम में पनाह मिली. हज़ारों ने उनसे सीखा. साल-दर-साल तमाम लोगों का आवा-गमन रहा. लेकिन गुरूजी अपने ठिकाने पर क़ायम रहे. 

इस पर हमने एक मर्तवा उनसे चर्चा की थी. "गुरूजी, आप इतने समय एक ही जगह रह कर 'बोर' नहीं हो जाते हैं?" "कैसे बोर होंगे, सामने वाले व्यक्ति तो बदलते रहते हैं न, और कई बार जाने-पहचाने व्यक्ति का कोई नया रूप देखने को भी मिलता है!" साथ ही साथ गुरूजी की समझ थी कि आधुनिकता के मोह ने मानव-जाति को अत्यन्त बेचैन बना दिया है. आज यहाँ, कल वहाँ, लोग भागम-भाग में ही अपना सारा जीवन व्यर्थ कर देते हैं. वे कहते, "इस गति से हमारी महसूस करने की और सोचने की शक्ति तेज़ी से कम होती जा रही है. हमारे हाथ-पैर और ज़ुबान जितनी तेज़ रफ़तार से चलेंगे, उतनी ही सीमित हमारे सोचने की शक्ति हो जायेगी." गाँधीजी ने हिन्द-स्वराज पुस्तक में भी कुछ ऐसी ही बात लिखी है. 

गुरूजी की समझ थी कि आधुनिकता की बेचैनी और बेसब्री का कारण वैश्विक तकनीक के वर्चस्व में ढ़ूँड़ा जा सकता है. तेज़ से तेज़ मोटर-गाड़ियाँ, हवाई-जहाज़, मोबाइल फ़ोन और कम्प्यूटर जैसे अति-कुशल यंत्रों ने मानव समाज से उसका समय और उसकी आज़ादी छीन कर इन्सान को मात्र उपभोगता का पात्र सौंप दिया है. ये प्रक्रिया सदियों से चल रही है, और हाल के बाज़ारवाद ने इसकी गति अति-तीव्र कर दी है. समाज हाशिये पर है. 

कुछ साल पहले मसूरी में एक बैठक में गुरूजी ने वही बात दोहराई जो उन्होंने हमसे फ़ोन पर कई बार कही: "तकनीक का पैमाना सही होना चाहिए. एक हद तक तो समाज तकनीक को संचालित कर लेता है. अगर तकनीक इस हद से आगे चली गयी तो फिर वो समाज को संचालित करेगी." इस महा-तत्त्व का  प्रमाण हमारे चारों-ओर है. गुरूजी की समझ थी कि जहाँ हमारी परम्परा बाहरी ज़िन्दगी की प्रक्रियाओं को सरल बनाने का प्रयास करती है (ताकि हम अन्दरूनी दुनिया में गेहराई में डूब सकें), आधुनिकता बाहरी जीवन को जटिल-दर-जटिल बनाये जाती है और कुछ समय बाद हमको अन्दरूनी खोखलेपन का एहसास होता है. 

ऐसी दुनिया हमसे एक और कीमत वसूलती है. तकनीकी वर्चस्व से हमारा प्रकृति से रिश्ता धीरे-धीरे टूट जाता है. गुरूजी का प्रकृति-दर्शन गहन था. "बिना प्रकृति-दृष्टि के मानव समाज अंधा होता जाता है. प्राकृतिक रिश्तों का ज्ञान खो देता है  समाज. भेड़ डाँगर का 'मामा' लगता है. मगर शहर-शिक्षित लोगों को इन रिश्तों की क्या समझ!" आधुनिकता में पर्यावरण का संकट निश्चित है.   

प्रकृति-दृष्टि से ही जुड़ी है गुरूजी की सौंदर्य-दृष्टि. उनका मानना था कि जो चीज़ नैसर्गिक नहीं है वो भला सुन्दर कैसे हो सकती। आधुनिकता की सबसे बड़ी खामी, उनकी नज़र में, उसकी कृत्रिमता है. असली को सुधारते-सुधारते  आधुनिक समाज नक़ली होते चले आएं हैं. और साथ ही बद-सूरत. 

जब हम तीन वर्ष पूर्व माँ को आदिलाबाद ले गए थे कलाश्रम के कार्तिक-महोत्सव में, तो उनहोंने गौर फ़रमाया था कि "थके हालत में भी गुरूजी का अपनी धोती से पसीना पोंछना एक बारीकी अंदाज़ दर्शाता है!" गुरूजी हर मायने में देशज थे. बोल-चाल, चाल-ढाल, खान-पान, सब सरल से सरल. याद नहीं किसी को कि कभी वो सफ़ेद कुर्ता-धोती के इलावा भी किसी और वस्त्र में दिखे हों. 

आज की दूनिया में लोग गुरु के दर्शन के लिए ही उतावले रहते हैं. लेकिन वास्तव में गुरु वो है जो दर्शन कराता है. चाँद की तरफ उंगली के इशारे को ही चाँद समझने में तो कोई बुद्धिमत्ता नहीं है. आज तमाम मानव-जाति वैश्विकरण के तीखे प्रहार के प्रकोप में जी रही है, और प्रकृति पर भी घातक हमला ज़ारी है. गुरूजी के दिए सूत्रों द्वारा इन प्रक्रियाओं को सरलता से समझा जा सकता है. और जैसे-जैसे धुंध छंटती है, पुराने मंज़िलों की तरफ नए रास्ते बनाये जा सकते हैं.  

संगीत सिखाते वख़्त माँ हमसे कहती हैं, "गुरूजी की छवि सामने रख के रियाज़ करो तो शुद्ध स्वर निकलेगा अनंत से!" गुरूजी के सरल जीवन और दर्शन में दिखता है स्मृति और श्रुति का अनोखा संतुलन. उनका जीवन-दर्शन सनातन-सभ्यता की एक अद्भुत मिसाल है, जिस में नज़र आती है न केवल हमारे समय की साफ़ तस्वीर बल्कि शाश्वत की भी एक आनन्दमय झलक. हम इस महा-स्रोत से आगे भी प्रेरणा की श्वास लेते रहें, ऐसी महादेवी से कामना है.  
   




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